कभी रूबरू हुई ना खुशिया, के मुझे मिले गम ही ऐसे थे |
मुकमल होता भी सुकूं कैसे, ढाने वाले के सितम ही ऐसे थे|
गुजरता गया वक्त हम सहते रहे, खून के आंसू थे और बहते रहे|
टूट के एक दिन बिखर जाओगे, कुछ चाहने वाले ये कहते रहे||
ना कभी भरे ना कभी भरेगे, जो मिले वो जख्म ही ऐसे थे|
कभी रूबरू हुई ना खुशिया………………………………….
मैं करता तो भी क्या यारो, इस कदर वक़्त के हाथो मजबूर था|
जिंदगी बिक गई थी बदनशीबी के हाथो, फ़िजाओ से कोषों दूर था||
किसी भी हद तक गुजर जाना आम था, वो बेरहम ही ऐसे थे|
कभी रूबरू हुई ना खुशिया………………………………….
जब याद आते हैं वो फ़रेब रूह मेरी काप जाती है, इस कदर टुटा हु खुद की सूरत ना राश आती है|
बरसो गुजर गये मुझे आईना देखे, मुस्कुराऊ मैं कैसे अब तो परछाई भी मुझे डरती है||
कैसे भर जाते घाव मेरे तन मन के, लगाने वाले के मरहम ही ऐसे थे|
कभी रूबरू हुई ना खुशिया………………………………….
कुदरत का हो जाये कोई करिश्मा ऐसा, के दूर कहीं मैं भाग जाऊ|
इस जिंदगी से अच्छा ही होगा अंजाम मेरा, और लोट के ना कभी आऊ||
सोचता हु किस बात की थी ये सजा, क्या कहीं मेरे कर्म ही ऐसे थे|
कभी रूबरू हुई ना खुशिया………………………………….
1 Comment
anan · March 23, 2018 at 4:41 pm
बहुत बढ़िया